(मनोज इष्टवाल) तमसा व यमुना के बीच बसा 400 गाँवों का यह समूह जौनसारी जनजाति के रूप में 1967 में तब जनजातीय कहलाया जब सम्पूर्ण उत्तराखंड की पांच जातियों की पहचान यहाँ आदिवासी जनजाति के रूप में हुई जिनमें जौनसारी, भोटिया, राजी, थारु व बुक्सा प्रमुख हैं. इनमें भी दो जातियां थारू व राजी को आदिम जनजाति माना जाता है. इस जनजाति में महिला प्रदान समाज को प्राथमिकता दी गयी है व महिलायें ही यहाँ व्यवहारिक भाषा में घर परिवार की सम्पूर्ण जिम्मेवारियों के निर्वहन में पुरुष समाज के साथ खड़ी मिलती हैं. स्वाभाविक है कि जहाँ नारी समाज पूजनीय हो तो वह समाज देवतुल्य माना ही जाएगा.
यहाँ की बिरासत के अंग में यहाँ के लोक समाज की पहचान व परिकल्पना ही नारी के रूप सौन्दर्य व लोक पहनावे व आभूषण से होती है. एक दौर था जब यहाँ नारी के रूप विन्हास में उसकी तोतई नाक को ज्यादा प्राथमिकता से देखा जाता था. ढांटू इनके लोक पहनावे का वह अभिन्न वस्त्र है जो बड़े बड़े विवाद सुलझा लेता है. यहाँ के आभूषणों में अब मांगटीका, पाजेब, मंगलसूत्र, स्वर्ण चेन, हाथ चूड़ियाँ इत्यादि भी शामिल हो गयी हैं जबकि ब्रिटिश काल में नौ तोला नाथ यहाँ के सम्भ्रान्त परिवारों ने अपनानी शुरू कर दी उस से पूर्व नाथ प्रचलन में रही हो ऐसा कहीं इतिहास में दर्ज नहीं हैं क्योंकि यहाँ की नाथ (नथ) का डिजाईन भी उत्तराखंड की आम नथों से मिलता जुलता है.
जौनसार के आभूषणों उतराई कानों के उपरी हिस्सों में पहनी जाती हैं जो चूड़ियों की तरह गोलकार में घूमी होती हैं व उनका बोझ संभालती शीशफूल की भाँति इसी उतराई का बड़ा हिस्सा सिर की शोभा बढ़ाता बालों में गुंथा होता है जिसे कई अनजान लोग मांग टीका कहे देते हैं. तुंगल कानों में पहने जाने वाली झुमकी, बाली, टॉप्स इत्यादि के स्थान में पान के पत्ते के आकार में झूलती हुई कंधों के हिस्सों को छूते हुए आकर्षक जेवर होते हैं. फिर आती है तिमौणीया…! यह आभूषण नेपाली व कुमाउनी तिमौणी से कुछ हद तक मिलता है लेकिन यह उनकी भाँती लम्बा लटका नहीं होता बल्कि यह गले के घेरे में सबसे करीबी समझा जाने वाला जेवर है. इसमें तीन दाने स्वर्ण व कांच के टुकड़े लगे होते हैं और पहले यही शादीशुदा महिलाओं का मंगलसूत्र होता था. अविवाहिताएं व विवाहिताएं भी कांच पहना करती थी, जो गुलोबंद की भाँति गले की शोभा बढाते थे लेकिन आश्चर्य कि तिमौणीया व काँच बहुत तेजी से इस जनजाति के आभूषणों से दूर होते जा रहे हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह हार व खगाल्टे या खगालिये अब यदा कदा ही महिलाओं के गले में दिखाई देते हैं.
इस समाज के जो चांदी या स्वर्ण हार होते थे वह आम तौर पर चंद्राहार की लम्बाई लिए हुए होते थे लेकिन उन पर चाँद का आकार कम दिखने को मिलता था. खगाल्टे या खगालिये लगभग गढवाली हँसुली की भांति गले में गोलाकार पहने जाते हैं लेकिन यह देखने भी अब दुर्लभ हो गए हैं. बुलाक यहाँ के लोक पहनावे में का हिस्सा है जो नाक के बीच के हिस्से को भेदकर पहनी जाती है. पहले कानों में दोसरु भी पहना जाता था. यह लगभग कुमाउनी आभूषण गोखुरू की तरह का होता था.
शूच यहाँ की लोकपरम्पराओं में चांदी का वह आभूषण है जो गले में झूलता हुआ तीन चार या पांच लड़ी हार के मानिंद एक चौड़े से पान पत्ते को संभालता है. जिसकी खूबसूरत के लिए उस पर लाख या अन्य धातु रंग लगे होते हैं. इसका अंतिम हिस्सा झूलता हुआ नाभी तक पहुँचता है. तुंगल व शूच ही ऐसे आभूषण हैं जो जौनसारी समाज की पैरवी करते हुए दिखाई देते हैं.
जौनसारी महिलाओं के हाथों में पहले चूड़ियों के स्थान पर गिलास नामक जेवर होता था जो मूलतः चांदी से निर्मित होता था व इसके आकृति गिलास की तरह ही होती थी. लेकिन यह भी अब प्रचलन से बाहर हो गया है. यह अचम्भित करने वाली बात है कि जौनसारी महिलाओं के पैरों में आभूषण के रूप में सिर्फ पोलिया हुआ करते थे. पोलिया यानी अँगुलियों में पहने जाने वाले बिच्छु. न इस समाज के पहनावे का हिस्सा पाजेब होती थी और न ही झंवरियां…!
और तो और दो तीन बर्ष पूर्व तक भौतिकता ने इस जनजाति में भी अपनी पैठ मजबूत कर दी थी व लगभग 20 बर्ष पूर्व तक यहाँ के युवा समाज ने अपनी लोकसंस्कृति के विभिन्न रंगों का तेजी से परित्याग करना शुरू कर दिया था. शहरी चकाचौन्ध में रचने बसने के बाद यहाँ के पढ़े लिखे युवा – युवतियों का अपने लोक पहनावे से मोहभंग होता सा प्रतीत होने लगा. लेकिन हाल के दो तीन बर्षों में इसी समाज के पढ़े लिखे बुद्धिजीवी लोगों ने लोकपंचायत नाम से एक ऐसा संगठन बनाया जिसने फिर से नौनिहाल व युवाओं को अपनी जड़ों पर वापस लौटने को मजबूर कर दिया. जो लोग कल तक अपनी लोक परम्पराओं के आभुषण व पहनावे से दूर भाग रहे थे आज वही युआ समाज फिर से उन्हें फैशन के तौर पर अपनाने लगा है.
इसमें कोई दोराय नहीं कि इसी जौनसारी जनजातीय समाज की देहरादून जिलापंचायत की अध्यक्ष श्रीमती मधु चौहान ने भी लोक बिम्बों व उनके प्रतीकों को अपनाते हुए लोक पहनावे व लोक आभूषणों के साथ सोशल साईट में अपनी फोटो साझा कर जनजागृति के लिए युवाओं को प्रेरित किया साथ ही उन्होंने अपने चुनावी दौर में भी ऐसी ही फोटो चस्पा कर इसका आकर्षण भी बरकरार रखा. यह और सुखद रहा कि खत्त पशगाँव के ग्राम दसऊ के युवा अनिल चौहान ने सोशल साईट पर अपनी धर्मपत्नी अंजू बिष्ट चौहान की उपरोक्त फोटो साझा कर मुझे मजबूर कर दिया कि मैं इस जनजातीय लोकसमाज के आभूषणों पर अपनी कलम चलाऊं।