देशभर में दीपावली का त्योहार बड़े ही हर्षोल्लास से मनाया जा रहा है। उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में भी इस रोशनी के पर्व को धूमधाम से मनाया जा रहा है। यहां दीपावली की तैयारियां कई दिन पहले से ही शुरू हो जाती हैं। उत्तराखंड में इसे भैलों बग्वाल के रूप में मनाया जाता है, जहां दीपावली के दो दिन तक भैलों खेला जाता है।
दीपावली से पहले लोग अपने घरों की साफ-सफाई करते हैं और रिश्तेदारों को घर आने का निमंत्रण भेजते हैं। इसके बाद धनतेरस से दीपावली का आरंभ होता है। इस अवसर पर प्रवासी लोग भी अपने परिवार के साथ घर लौटते हैं और मेहमानों का स्वागत किया जाता है। गांव के पंचायती चौक पर लोग इकट्ठा होकर एक-दूसरे को दीपावली की शुभकामनाएं देते हैं और सामूहिक रूप से दिवाली मनाते हैं।
दीपावली के दिन विशेष पकवान, जैसे उड़द की दाल के पकोड़े, गहत से भरी पूड़ी-पापड़ी बनाई जाती है। सामूहिक भोज से पहले घरों में पूजा-अर्चना कर सुख-समृद्धि की कामना की जाती है। इसके बाद सभी एक-दूसरे के घरों में जाकर पकवानों का आदान-प्रदान करते हैं। फिर पारंपरिक नृत्य के साथ भैलों खेल की शुरुआत होती है।
उत्तराखंड में दिवाली या बग्वाल मनाने के लिए पुराने समय से ही भैलों का उपयोग होता आ रहा है। भैलों को चीड़ की लकड़ी से बनाया जाता है, और इसे बनाने में बच्चों व युवाओं में खासा उत्साह होता है। इसके लिए विशेष प्रकार की बेल (लगला) जंगल से लाई जाती है, जिसमें चीड़ की लकड़ी को मजबूती से बांधा जाता है। मान्यता है कि एक परिवार में भैलों विषम संख्या में बनाए जाते हैं (जैसे 1, 3, 5, 7, 9)। दीपावली के दिन सबसे पहले भैलों की पूजा होती है, फिर मेहमानों और आगंतुकों के साथ भोजन किया जाता है। इसके बाद पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ सभी ग्रामीण खेतों में जाकर भैलों खेल का आनंद लेते हैं।